परमात्मा महावीर का अंतिम भव! देवानंदा की कुक्षि में प्रभु का पदार्पण! 82 दिनों के बाद हरिणैगमेषी देव ने परमात्मा को त्रिशला महारानी की कुक्षि में विराजमान किया। ईस्वी 598 वर्ष पूर्व क्षत्रियकुंड नगर में त्रिशला महारानी की कुक्षी से महाराज सिद्धार्थ के पुत्र के रूप में चैत्र सुदी तेरस के शुभ दिन परमात्मा महावीर का जन्म हुआ । जब से परमात्मा त्रिशला माता के गर्भ में पधारे थे तब से सिद्धार्थ महाराज के साम्राज्य ऋद्धि धन धान्य आदि हर क्षेत्र में वृद्धि हो रही थी, इस लिए उनका नाम वर्धमान रखा गया। एक बार जब वे 5 वर्ष के हुए तब वे अपने दोस्तों के साथ खेल रहे थे उसे समय इंद्र महाराज की प्रशंसा सुनकर एक देव उनकी परीक्षा लेने आया वर्धमान कुमार ने खेल-खेल में ही उस देव को हरा दिया। तब उस देव ने वर्धमान कुमार को महावीर नाम दिया और तब से वे महावीर नाम से प्रसिद्ध हुए। यौवन अवस्था में उनकी यशोदा के साथ शादी हुई और प्रियदर्शना नाम की पुत्री हुई। माता-पिता के स्वर्गवास होने के बाद 30 वर्ष की आयु में मिगसर वदि १० को उन्होंने संयम ग्रहण किया। 12.5 वर्ष के साधना काल में परमात्मा ने बहुत ही कष्ट सहन किये। संगमदेव,शूलपानी,कठपूतना,चंडकौशिक आदि के द्वारा दिए गए अनेक अनेक उपसर्गों को सहन करते हुए ऋजु बालिका नदी के किनारे वैशाख सुदि १० को गोदुग्ध आसन में परमात्मा ने केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त किया। केवल ज्ञान प्राप्त करने के बाद परमात्मा की पहली देशना खाली गई जिसमें किसी ने कोई व्रत ग्रहण नहीं किया वे उसी दिन विहार कर पावापुरी पधारे जहां दूसरे दिन वैशाख सुदी ग्यारस के दिन गौतम आदि 11 गणधरों को दीक्षा देकर चतुर्विध संघ की स्थापना की। 30 वर्ष तक परमात्मा केवली के रूप में विचरे।अंतिम चातुर्मास परमात्मा का पावापुरी में हुआ।वहां परमात्मा ने 16 प्रहर तक निरंतर देशना देते-देते कार्तिक वदि अमावस्या की रात को निर्वाण पद प्राप्त किया। उनकी जीवन यात्रा और आध्यात्मिक साधना के बारे में अधिक जानकारी के लिए यहाँ से PDF डाउनलोड करें।
अनंत लब्धि निधन के नाम से जन-जन में प्रसिद्ध गौतम स्वामी परमात्मा महावीर के प्रथम गणधर व 50,000 केवलज्ञानी शिष्यों के स्वामी थे ।गुब्बर ग्राम में उन्होंने वसुभूति पंडित की पत्नी सौभाग्यशालिनी पृथ्वी देवी की रत्न कुक्षी से जन्म लिया था पावापुरी में दीक्षा लेने से पहले वे इंद्रभुती नामक वेद, वेदांग , निमित्त, ज्योतिष, यज्ञ कांड - क्रिया आदि के परम विद्वान थे।”आत्मा है या नहीं” इस शंका का युक्ति संगत समाधान पाकर वे परमात्मा महावीर के प्रथम शिष्य बने। अपने गुरु की आज्ञा के प्रति अपार विनय व बहुमान का भाव होने से वे उनके विनयमूर्ति शिष्य कहलाए। अंगूठे में अमृत होने से अमृत पुरुष कहलाए। दीक्षा लेकर आजीवन 42 वर्ष तक उन्होंने बेले-बेले की तपस्या की। उनकी काया में गजब का आकर्षण था। वे शांत,दांत,तपस्वी,मनस्वी,यशस्वी,नम्र,सरल,घोर ब्रह्मचारी,महासाधक, गुरु-आज्ञा पालन में परम निपुण अप्रमत्त,कषाय-विजेता, चारित्र पालन में निपुण थे। उन्हें 80 वर्ष की उम्र में गुणायाजी मैं कार्तिक शुक्ल एकम को प्रभु वीर के विरह में विलाप करते हुए केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। उसके 12 वर्ष बाद राजगृही के वैभारगिरि पर्वत पर निर्वाण पद पाया। उनकी जीवन यात्रा और आध्यात्मिक साधना के बारे में अधिक जानकारी के लिए यहाँ से PDF डाउनलोड करें।